भारत में सूफी और सिद्धों की ऐसी परंपरा रही है जिन्हें किसी पंथ या सम्प्रदाय में नहीं रखा जा सकता, फिर भी वे सभी पंथों और सम्प्रदायों के थे और हैं, वे सभी के और सभी उनके। साईं काका भी उसी परम्परा के संत हैं। उनके व्यक्तित्व में सूफियाना अंदाज है और सिद्धों का प्रताप भी। वे भारत की आध्यात्मिक परम्परा का जलता हुआ दीया है- पूजा का दीया- जो अस्तित्व के मंदिर में जल रहा है, लोगों को अपने अन्तर दीये को जलाने की प्रेरणा देने के लिए।
एक पूजा वह होती है कि पुजारी दीया जला कर मंदिर में अर्पित कर देता है और एक पूजा वह होती है कि पुजारी अपनी पूरी सत्ता को ही आलौकित करके दीये की तरह उसे अस्तित्व के मंदिर में अर्पित कर देता है। उसकी पूरी सत्ता ही पूजा का दीया बन जाती है। साईं काका ऐसी ही पुजारी हैं जो स्वयं ही पूजा का दीया होकर अस्तित्व के मंदिर में अर्पित हैं और भटके हुए लोगों को अंधेरी राहों को आलोकित कर रहे हैं। ये उनका अहोभाग्य है जो पूजा के इस जीवंत दीये की रोशनी के घेरे में है।