ईश्वर समय-समय पर धरती पर प्रकट होते हैं। कभी उन्हें अवतार की मान्यता दी जाती है और कभी नित्यासिद्ध पुरूष की। श्री भगवान नित्यानन्द जन्म-सिद्धा थे और उनमें कई बार एक अवतार होने की झलक मिलती थी।
भगवान नित्यानन्द द्वारा अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही व्यतीत हुआ। परम पिता परमेश्वर की भांति उनमें भी सम्पूर्ण शक्तियां विद्यमान थीं। फिर भी उन्होंने अपने स्वयं के लिए कुछ नहीं किया। वे केवल एक लंगोट पहने ऊपर से शॉल डाले रहते थे और लकड़ी के तख्त पर ही सोते थे। सदैव ही भौतिक लाभों और किसी भी प्रकार की इच्छाओं से वे अपने को मुक्त रखते थे।
भगवान नित्यानन्द ने अनेक वर्ष दक्षिणी कनारा जिले के क्वीलैंडी में व्यतीत किए। यहां से वे हिमालय पर्वत के अन्दरूनी हिस्सों में भ्रमण करते हुए कुछ स्थानों पर ठहरे भी, जिनमें क्वीलैंडी के अतिरिक्त श्रीलंका, बर्मा, कन्हंगद, कुम्बला, गोकर्णा, उदीपी, कालीकट, मंगलौर, मणीश्वर, कर्नाटक के समुद्री किनारे तथा व्रजरेश्वरी है। बाद में वे गणेशपुरी में ठहरे, जोकि मंदाकिनी पर्वत के चरणों में स्थित है और भीमेश्वर मंदिर के समीप है। यह स्थान छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यहां हरे-भरे मैदान हैं और गर्म पानी के कुण्ड भी हैं। उन्होंने अपने जीवन के शेष वर्ष वहीं व्यतीत किए और 8 अगस्त 1961 में उन्होंने महासमाधि ले ली।
स्वामी मुक्तानंद का जन्म 14 मई 1908 को मंगलौर के समीप हुआ। अपने प्रथम गुरू सिद्धारूढ स्वामी जोकि अपने समय के विख्यात विद्धान और संत माने जाते थे, हुबली स्थित आश्रम में , से मुलाकात की। यहीं पर ही उन्होंने वेदान्त का अध्ययन किया। संन्यास ग्रहण किया तथा स्वामी मुक्तानन्द का नाम ग्रहण किया, जिसका अभिप्राय था ‘मुक्ति का आनंद’।
अनेकों संतों से मिलने के उपरान्त, एक गुरू सन्त ने उन्हें भगवान नित्यानन्द, सिद्ध गुरू के पास भेजा जोकि पूर्ण रूप से आध्यात्मिक थे जिनकों वे वर्षों से खोज कर रहे थे। भगवान नित्यानन्द की अनुग्रहकारिणी शक्ति से स्वामी मुक्तनन्द पर दिव्य शक्तिपात किया जिससे उनकी बाहरी यात्राएं समाप्त हो गई और वे एक आन्तरिक दिव्य यात्रा पर चल पड़े। “ सिद्धयोग में सिद्ध-गुरू एक दृष्टि, शब्द, स्पर्श या संकल्प के द्वारा शिष्य की सुप्त कुण्डलिनी-शक्ति को जगाने में कुशल होते हैं। इसको ‘शक्तिपात’ कहते हैं जिसके पश्चात् इस महायोग की प्रक्रिया स्वत: आरम्भ हो जाती है जिसका मूल गुरूकृपा है।“
वर्ष 1956 में भगवान नित्यानन्द ने घोषणा की कि स्वामी मुक्तानन्द की अन्दरूनी यात्रा पूर्ण हो चुकी है, अर्थात् उन्हें आत्म साक्षात्कार हो गया है। वर्ष 1961 में महासमाधि लेने से पहले भगवान नित्यानन्दा से स्वामी मुक्तानन्दा को अपनी महान विभूतिपूर्ण आध्यात्मिक शक्ति एवं सिद्ध परंपरा का अधिकार प्रदान किया।
उसके बाद के दशक में बाबा, स्वामी मुक्तानन्द के रूप में पहचाने गए और सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण किया। उन्होंने सभी जिज्ञासु दर्शनार्थियों का शक्तिपात किया और उन्हें सिद्ध परंपरा के उपदेशों से अवगत कराया। उन व्यक्तियों ने , जिन्होंने कभी इस आराधना के सम्बन्ध में सुना भी नहीं था, उसे बाबा की उपस्थिति में उन्होंने आन्तरिक स्थिरता में प्रवेश किया जिससे उनके जीवन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। उन्होंने विशाल समूहों को शक्तिपात प्रदान किए जाने के ध्यान शिविर आयोजित किए। और बिना विश्राम किए जनमानस को उस परिवर्तन की प्रक्रिया से अवगत कराया जोकि उनके अऩ्दर आरम्भ हो चुकी थी। 2 अक्टूबर 1982 को उन्होंने महासमाधि ग्रहण की।