अनुभव

कमलेश्वर: हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित लेखक एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

यह बड़ा आकस्मिक था। आदरणीय अमृता जी के यहाँ एक पुस्तक का लोकार्पण समारोह था। यह पुस्तक अफ़ज़ल तौसीफ की थी। पाकिस्तान के मशहूर कथाकार और नामनिगार कॉलमिस्ट, जिन्हें, पाकिस्तान के फौजी निज़ामों ने बार-बार सताया था, अफजल तौसीफ जी के विचार ही उनकी मुश्किलों का कारण रहे हैं। लोकार्पण मुझे ही करना था। कुछ चुने हुए लोग आमंत्रित थे।

मेहमानों के बीच ही साईं काका घर के बुजुर्ग की तरह बैठे थे। दिव्यता उनके व्यक्तित्व में थी, पर लगता ही नहीं था कि वे अपनी दिव्यता के बोझ से बचे हुए थे। साईं काका के बारे में मैंने सुना तो काफी था पर उनके मिलने का सौभाग्य मुझे इस अवसर पर मिला। अमृता जी ने कई बार काका की रूहानी बातों- प्रसंगों का जिक्र मुझसे किया था। छोटे से लोकार्पण कार्यक्रम के बाद मैं उनके पास जाकर बैठ गया। बातें की तो लगा ही नहीं वे आध्यात्मिक पुरूष हैं, वे नितांत पारिवारिक और व्यावहारिक परा-परूष हैं, इसी दुनिया के। इन दिनों धर्म के नाम पर राजनीतिक आँधियाँ चल रही थीं। जिक्र आया तो बोले, धर्म तो व्यक्तिगत होता है। समूह में धर्म नहीं होते हैं, और सम्प्रदाय होगा, तो साम्प्रदायिकता भी हो सकती है।

साईं काका के संबंध में मैंने अमृता जी का लेख भी पढ़ा है, भाई राजेश चंद्रा की पुस्तक ‘पूजा का दिया’ भी। जाहिर है कि वे उच्चतम आध्यात्मिक मनीषा के मालिक और तत्व ज्ञानी हैं, लेकिन उनमें आध्यात्मिकता रहस्यवाद नहीं है। उनकी बातें जीवन संदर्भों से जुड़ी हैं। वे मुझ निषेधवादी नहीं लगे। उनमें सकारात्मक सगुणवाद है। वे ग्रंथों के गूढ़ तत्व-ज्ञान को सहज बना देते हैं। मैंने उनसे पूछा कि आपका आश्रम कहाँ है? वे बोले – पूरा ब्रह्माण्ड.. अपने यहाँ गृहस्थाश्रम की व्यवस्था और परम्परा है.. इस अधोमुखी वासना को ऊर्ध्वमुखी उपासना में भी बदल सकते हैं, तथा एकांताश्रम की क्या जरूरत है ? मेरा कोई आश्रम नहीं है। प्रत्येक घर मेरा आश्रय और आश्रम है।

मुझे लगा कि साईं काका सिद्धी और सूफियों की उस कोटि में आते हैं जिनका कोई मठ या सम्प्रदाय नहीं है। वे समाज और उसकी समस्या से विमुख संत पौराणिक या वेदांती नहीं हैं वे आज की समस्याओं में उलझे हर व्यक्ति के लिए एक दोस्त की तरह मौजूद हैं।

एक कम्यूनिस्ट योगी

“क्या एक कम्यूनिस्ट व्यक्ति भी आध्यात्मिक हो सकता है? कम्यूनिस्ट तो मौलिक रूप से खुद को नास्तिक घोषित करते हैं। यह सवाल सुनना था कि काका की आँखें चमक उठीं और अगले ही पल वह चमक ही आवाज़ में तब्दील हो गई, वह कहने लगे, ‘एक कम्यूनिस्ट कितना बडा आध्यात्मिक हो सकता है, आपको एक प्रसंग सुनाता हूँ।‘

संत ज्ञानेश्वर की समाधि आलन्दी के एक ट्रस्टी थे, डॉ वाई बी फाटक, वे बहुत उन्नत साधक थे। उनका चित्त बड़ा उज्ज्वल और पारदर्शी था। एक दिन जब वह माउली की समाधि पर माथा टेकने गए तो उन्होंने एक अजीब नज़ारा देखा।

महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर को लोग माउली कहते हैं, माउली यानी माँ। शायद ये भारत के एकमात्र पुरूष संत हैं, जिन्हें उनके भक्त मां कहते हैं। ये करूणा की पराकाष्ठा होती है, जब संत मातृस्वरूप हो जाता है।

अस्तु, जब फाटक जी माउली की समाधि पर माथा टेक रहे थे तो क्या देखते हैं कि समाधि के नीचे ज्ञानेश्वर एक महानुभाव के साथ आध्यात्मिक संवाद कर रहे हैं। उन्होंने गौर से देखा कि वह महानुभाव श्री विष्णुपंत चितले हैं। दोनों की बहुत गुढ़-गम्भीर वार्ता हो रही है। दोनों की देह दिव्य आभा से जगमगा रही है।

फाटक जी ये दृश्य देख कर दंग रह गए। वह समझ नहीं पाए कि माउली ने उन्हें यह क्या दिखा दिया। उन्हें माउली के आध्यात्मिक संवाद पर विस्मय नहीं था, विस्मय इस बात पर था कि वह संवाद विष्षुपंत चितले के साथ हो रहा था।

वास्तव में विष्णुपंत चितले उस काल के एक प्रसिद्ध कम्युनिस्ट थे, उनकी लोकछवि एक नास्तिक और क्रांतिकारी की थी। वह कार्ड-होल्डर कम्युनिस्ट थे जिन्हें कट्टर कम्यूनिस्ट कहते हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के स्तम्भ माने जाने वाले महाराष्ट्र के श्रीपाद अमृत डांगे के वह साथियों और सहयोगियों में गिने जाते थे। महाराष्ट्र की स्थापना 1 मई 1960 के बाद पहली विधान परिषद में मनोनीत सदस्य थे। ऐसी लोकछवि वाले व्यक्ति को ज्ञानेश्वर के साथ आध्यात्मिक संवाद करते देकर कर डॉ. फाटक का दंग होना स्वाभाविक था।

अगले दिन वह तुरंत आलन्दी से पुणे आए- विष्णुपंत चितले से मिलने के लिए। पुणे पहुंच कर उन्हें मालूम हुआ कि अभी एक दिन पहले ही विष्णुपंत शांत हुए हैं। उन्हें बड़ा दुख हुआ कि एक भेद भी खुला तो बड़ी देर बाद। मैंने कहा: ‘

मेरी आँख खुली एक जमाने के बाद

तुझे समझ सका तेरे जाने के बाद’

काका ने कहा, ‘हां, ठीक ऐसा ही डॉ आई बी फाटक को लगा। वह यह तो समझ गए कि एक दिन पहले उन्होंने ज्ञानेश्वर की समाधि पर जो दृश्य देखा था वो विष्णुपंत की दिव्य काया थी। फिर उन्हें किसी ने विष्णुपंत चितले के मित्र श्री व्यंक्टेश नखाते जी का पता दिया। फाटक जी पुणे की गलियाँ ढूंढते-ढूंढते नखाते जी के घर पहुँचे। एक नखाते जी तथा कुछ अन्तरंग थे जो विष्णुपंत चितले के आध्यात्मिक संसार से परिचित थे। नखाते जी ने डॉ फाटक को बताया कि ‘कुछ दिन पहले ही विष्णु कह रहा था, मेरा कार्ड कैन्सिल हो गया है? तो मैंने सोचा कि शायद वह कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड कैंसिल होने की बात कर रहा है, लेकिन मैं भी कल ही समझ सका कि वह दुनिया से अपने कार्ड के कैंसिल होने की बात कर रहा था, उसे मालूम था कि इस संसार में अब उनका काम पूरा हो चुका है।

काका कह रहे थे, ‘ नखाते जी महाराज अभी जीवित हैं, पुणे में हैं। डॉ एन के मिडे जी से मिलिए, वे आपको नखाते जी से मिला देंगे। वे आगे बताने लगे, विष्णुपंत चितले अपने समय के बड़े क्रांतिकारी थे, कार्ड होल्डर कम्यूनिस्ट थे, मंचों से जनसभाओँ को सम्बोधित करते थे, दास कैपिटल और कार्ल मार्क्स की बातें करते थे, इटली, रूस की क्रान्तियों की बातें करते थे, उनकी धारदार वार्ताएँ लोकमन को आन्दोलित करके रख देती थीं।

लेकिन वह व्यक्ति मंच से उतर कर पूर्ण आध्यात्मिक होता था, योगी होता था, उनकी आध्यात्मिक उपलब्धि का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने स्थूल शरीर से ज्ञानगंज की यात्राएं की थीं, उन्हें औषधि ज्ञान वहीं से प्राप्त हुआ था जैसे स्वामी विशुद्धानन्द को सूर्यविज्ञान के ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। विष्णुपंत चितले को दी हुई औषधियाँ लोगों के असाध्य रोगों को ठीक करती थीँ।

उनकी गुरू परम्परा ज्ञानेश्वर से शुरू होती थी, श्री ज्ञानगंज के योगियों से उनका सन्पर्क और संवाद होता था, उनके कुछ निकट शिष्य भी थे जिनको उन्होंने दीक्षा दी थी लेकिन उनके इस ऐकान्तिक, आध्यात्मिक जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी थी, वे स्वयं भी इसको प्रकाशित नहीं करते थे, प्रकट रूप से वही जीवन भर कम्यूनिस्ट ही रहे।

फिर काका कहने लगे, ‘वास्तव में जो क्रांतिकारी का अर्थ है वह आध्यात्मिक भी नहीं हो सकता। आध्यात्मिक का अर्थ है साहसी और उत्साही होना, सही को स्वीकारने और गलत को नकारने की क्षमता होना’

आप बताइए राजघराने को छोड़कर जनसमुदाय के साथ कीर्तन करने लगना और जातीय परम्परा को तोड़ कर रैदास को अपना गुरू बना लेना क्या मीरा की क्रांति नहीं थी? कबीर ने अपने समय में जो बातें कहीं वह किसी कार्ल मार्क्स से कम हैं? ज्ञानेश्वर, गोरा कुम्हार, जनाबाई, सेना नाई, एकनाथ, तुकाराम, नामदेव, चोखामेला, कानोपाज्ञा, सखुबाई आदि महाराष्ट्र के संतों ने मध्यकाल में पूरा का पूरा आंदोलन खड़ा कर दिया था जिसे लोग भक्ति आंदोलन कहते हैं। लेकिन मैं उसे समतावादी समाज की स्थापना के प्रयास का क्रांतिकारी आंदोलन कहता हूँ। वे लोग ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन वह उनकी अपने तरह की क्रांति थी। वे बुद्धिवादी नहीं थे लेकिन आत्मवादी लोग थे। आप उन संतों के पदों, दोहों, अभंगों को गौर से पढ़िए, आप को कहीं न कहीं कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ नज़र आएंगे। …

काका की बातें सुन कर मुझे उनमें भी एक क्रांतिकारी दिख रहा था। विष्णुपंत चितले के प्रसंग ने मुझे स्पर्श किया, इतना कि आखिर मैं पुणे भी पहुँच गया, डॉ एन के भिडे और नखाते महाराज से मिलने। डॉ भिडे से मिलना एक जीती-जागती धरोहर से मिलना था, ये बात और भी सार्थक होती है जब मुलाकात उनके अपने पुश्तैनी घर में हो रही हो, जो कि दो सौ चालीस साल पुराना है, सन 1760 में निर्मित और घर के जिस नक्काशीदार सोफे पर बैठ कर हम बात कर रहे थे, वह एक सौ पिचहत्तर वर्ष पुराना था। उनका घर पुणे की एक सांस्कृतिक धरोहर की तरह है जो दक्षिण भारतीय शैली का दुर्लभ नमूना है। पुणे नगर निगम के द्वारा उनका घर एक धरोहर (Heritage) के रूप में पंजीकृत है।

अस्तु मैं उनसे मिला, बातें कीं, लेकिन शायद विष्णुपंत अभी भी आत्मप्रकाश नहीं चाहते थे। मैं जिस दिन पुणे पहुंचा, डॉ भिडे ने बताया कि नखाते जी महाराज अभी हफ्ता भर पहले ही शांत हो गए हैँ। मन निराश हुआ कि विष्णुपंत के अत्यन्त निकट सम्पर्कों से भी वंचित रह गया, फिर भी डॉ साहब ने कुछ मौखिक और लिखित जानकारियाँ दीं।

विष्णुपंत चितले का जन्म 4 जनवरी सन 1906 को सतारा जिले में हुआ था। वह नरसिंहबाड़ी में रहते थे। जब वे तीन-चार साल के थे तो उनके माता-पिता उन्हें टेम्बे स्वामी के पास दर्शन कराने ले गए। टेम्बे स्वामी अधिकारी पुरूष थे। बाहरी तौर पर वह व्यवहार में बहुत कठोर थे। जल्दी ही किसी को पैर नहीं छूने देते थे। लेकिन वह बालक विष्णुपंत उचक कर टेम्बे सवामी की गोद में बैठ गया। उसके माता-पिता संकोच में पड़ गए। लेकिन स्वामी जी बिल्कुल असहज नहीं हुए। उन्होंने अपनी गोदी में बैठे बच्चे के सिर पर हाथ रख कर कहा – यह मेरा बच्चा है। एक सिद्ध पुरूष का इस तरह से कहना बहुत बड़ी बात थी। ये उनके जीवन की एक उल्लेखनीय घटना है।

अपने छात्र जीवन से ही वह देश के स्वतन्त्रता आंदोलन से जुड़े थे। क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेते थे। वे मार्क्सवादी हो गए, उनकी गिनती कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में होती है। पिछले सौ वर्षों में जो क्रांतिकारी आंदोलन हुए, उनमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वह श्रीपाद अमृत डांगे के साथ रहते थे। वह बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले की श्रेणी के व्यक्तित्व थे। वह महाराष्ट्र में नास्तिक समूह के नायक थे। लेनिन, माओ, मार्क्स उनके आदर्श थे।

उनके आध्यात्मिक जीवन के बारे में कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है लेकिन उनके कुछ समकालीन प्रत्यक्षदर्शी थे जो उनके इस रूप से परिचित थे। उनमें से एक नखाते जी महाराज थे वह अभी एक हफ्ते पहले ही शान्त हो गए हैं। विष्णुपंत चितले के समकालीनों में शायद वे अंतिम व्यक्ति थे और उनके विषय में जानकारी रखने वालों में शायद सबसे प्रमाणिक भी। वह बताते थे कि विष्णुपंत एक बार कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर गए थे। वहां प्रदक्षिणा के समय उन्हें एक योगी मिला था। योगी ने उन्हें देख कर कहा – आपका टेम्बे स्वामी से कुछ सम्बन्ध है, आपका कुछ काम करना है। फिर उस योगी ने उन्हें कुछ सिद्धियों का ज्ञान दिया, तब वापिस भेजा।

डॉ. साहब बता रहे थे- नखाते महाराज कहते थे कि विष्णु को आकाशगमन की सिद्धि थी। उनकी आध्यात्मिक गति बहुत उन्नत थी। गुलवनी महाराज की अनुमति से वह उनके शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहते थे। वे उन्हें बहुत मानते थे। उन्हें ज्ञानेश्वरी का भी अभ्यास था। विष्णुपंत के 20 मई सन् 1961 में यहीं पुणे में शान्त होने के बाद डॉ वाई बी फाटक जी ने ज्ञानेश्वर की समाधि पर जो कुछ देखा वह आपके काका जी से सुना ही। फिर मुस्कुरा कर डॉ एन के भिडे कहने लगे, काका भी कम क्रांतिकारी नहीं हैं। मैं तो मानता था कि मैं उनके बहुत निकट हूँ। लेकिन सच्चाई यह है कि उन्होंने मुझसे खुद को छिपाए रखा, छुपे रूस्तम बने रहे। वह तो अभी काका पर आपकी किताब पढ़ी तो भेद खुला कि वह कहाँ पहुंच गए हैं। दरअसल, जब बाबा मुक्तान्द शान्त हो गये तो काका ने गणेशपुरी आश्रम छोड़ दिया, मुझे लगा कि ये लड़का अब संसार में बिखर जाएगा।

डॉ भिडे काका जी से उम्र में लगभग बीस साल बड़े हैं। ये अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली (एम्स) से सन् 1990 में विभागाध्यक्ष एवं प्राघ्यापक फार्मेकॉलिजी विभाग के पद पर से अवकाश प्राप्त हैं। काका से उनकी शुरुआती मुलाकाते बाबा मुक्तानंद के पास गणेशपुरी के श्री गुरुदेव आश्रम में हुई थी, वहां उन्होने बाबा की तरुणावस्था की उम्र भी देखि है। डॉ भिडे बता रहे थे, आश्रम छोड़कर काका बिखरे नही थे, वे चुपचाप साधना में लगे रहे, यह भेद मेरे सामने अब खुल पाया है। मै जिस अनुभूति की प्रतिक्षा में हूं बाबा उससे गुजर गये हैं। आप भाग्यशाली है आप उनके साथ है। मैने डॉ. नारायण कृष्ण भिडे जी की विनम्रता को नमन किया और सिर ढक कर आशीष लिया। यह मुलाकात सन् 2000 मे हुई थी, कि अभी लगभग ढाई साल के बाद मालूम हुआ- विष्णुपंत चितले के एक और समकालीन निकट परिचित अभी पूणे में है। मै एक बार फिर पूणे पहुंच गया, 20 मई 2003 में। क्या अजीब संयोग था कि ठीक उसी दिन विष्णुपंत चितले की पूण्यतिथि थी। शाम को एक बार फिर डॉ भिडे से उनके सांस्कृतिक धरोहर नुमा आवास पर मुलाकात की, उनसे उन महानुभाव का नाम, पता, परिचय लिया जो निकट परिचित अभी भी वर्तमान है।

दूसरे दिन मै डॉ एस जी जोशी के सहयोग से उन वरिष्ठ महानुभाव के घर पहुंचा- श्री हरिभाव कुलकर्णी। इकहारा बदन, रंग साफ, चौड़ा माथा, कद मध्यम, तेजस्वी आंखे, पैरो में कोई चर्मरोग, वे उसके साथ जीने के अभ्यस्त। सुबह और शाम, दो सत्रो में मेरी उनसे लम्बी वार्ता हुई। वे हिन्दी, अंग्रेजी, और मराठी धाराप्रवाह बोलते हैं। प्रकट रुप से यह भी विष्णुपंत चितले के कम्युनिस्ट सहयोगी यानी कामरेड रहे हैं और श्रीपाद अमृत डांगे के साथ काम किया है। बाल गंगाधर केसरी के पत्र केसरी में सम्पादक रहे है और अभी भी उससे जुडे है। ड़ॉ जोशी ने उनसे मेरा परिचय कराया और मेरा उनसे मिलने का गंतव्य बताया। बात शुरु करने के लिए मैने प्रश्न किया- सारी दुनिया से कम्यूनिस्ट आंदोलन क्षीण क्यों होता जा रहा है। उन्होने मुस्कुरा कर पूछा- अभी आप कम्युनिज्म पर बात करना चाहते है या विष्णुपंत पर।

मेरा मन खिल गया कि मेरे वांछित विषय पर बात करने के लिये वे मानसिक रुप से तैयार हैं, उनका प्रतिप्रश्न इस बात का संकेत था कि बात करने के लिए किसी औपचारिक भूमिका की जरुरत नहीं है। मैने कहा- विष्णुपंत पर। फिर आगे पूछा- आपकी उनसे मुलाकात कब हुई थी।

उनका जवाब था- सन् 1957 में, दरअसल हम सब एक ही कम्यूनिस्ट आंदोलन में सक्रिय थे। उन दिनो मुझे कई बीमारियां हो गई थी- एमनेशिया, पॉलियूरिया, हाईपोग्लेश्मिया, अस्थमा और पैर में अग्जिमा। बहुत इलाज कराने के बाद भी ठीक नही हो रही थी, तब एक कामरेड डांगे ने मुझसे कहा- विष्णु को दिखाओ ये चिकित्सक भी है। यह सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ। एक बार के लिए लगा कि कॉमरेड हंसी तो नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्होने जितनी गम्भीकता से बात कही उसमें हंसी की गुजांइश भी नहीं। आखिर मैने विष्णु को अपना एग्जिमा दिखाया। आज मै जितना ठीक दिख रहा हूं, उसके इलाज से ठीक हूं। एक दिन उसने कहा था- मैने तुम्हे पंद्रह आने ठीक कर दिया है, ठीक पूके सोलह आने भी कर सकता हूं लेकिन एक आना छोड दिया है तुम्हारे पास अपनी याद के बतौर। चेहरे पर बिना भावुकता प्रकट किये हरिभाउजी ने अपना एग्जिमा ग्रसित पैर दिखाते हुए कहा- यह उसकी याद है।

मैने पूछा- क्या उनको चिकित्सक ज्ञान भी था।

हरिभाउ जी कहने लगे, था तो सही, लेकिन पारंपरिक चिकित्सा जैसा नही था, यह उसकी रहस्यविद्या जैसी थी। इसे उन्होने तिब्बत मे किसी योगी से सीखा था। उन्नीस सौ तीस और बत्तीस के बीच, दो साल, वे कैलाश- मानसरोवर की यात्रा के दौरान तिब्बत मे रहे थे। उनके जीवन के दो वर्ष हम सबके लिए रहस्य हैं। इन दो वर्षो में उन्होने क्या हासिल किया, इसकी विस्तृत ब्यौरा हम मे से किसी के पास नही है। यह चिकित्सा सिद्धि भी उनकी उसी अवधि की देन है। मै सिद्धि इसलिए कह रहा हूं, क्योकि उनमें असाध्य रोग को ठीक कर देने की चमत्कारिक क्षमता थी।

एक बार नखाते जी की बेटी को बहुत तेज बुखार आया, काफी इलाज हुआ लेकिन यह ठीक नहीं हो पा रहा था। विष्णुपंत ने लड़की को देखते ही कहा- समस्या कहीं सर मे है। उस बात को किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया लेकिन आखिर में सघन जांच से पता चला कि उसके सिर के अंदर किसी नस में चोट लगी थी। फिर उसका इलाज भी विष्णु ने ही किया, वह ठीक हो गई।

पूणे के प्रसिद्ध डॉक्टर थे, डॉ वी. एन. भेन्डे। उनके द्वारा घोषित कई असाध्य रोगियो को उन्होने ठीक किया था। एक बार भेन्डे ने विष्णु से कहा कि अपनी चिकित्सा पद्धति वे उन्हे भी सिखा दें। उनके निवेदन पर विष्णु ने मुस्कुरा कर कहा- एक शर्त पर सिखा दूं, सिर्फ मेरी पद्धति पर चिकित्सा करें, चिकित्सा के अपने सारे प्रमाण पत्र जला दें, और नाम के आगे डॉक्टर पद भी हटा दें।

डॉ. भेन्डे इतनी हिम्मत नही जुटा सके और विष्णुपंत की विद्या उनके साथ ही रह गयी। उनकी चिकित्सा पर स्वयं कामरेड डांगे को विश्वास था, आपको एक घटना सुनाता हूं। यह बात सन् 1960 की है तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे यशवंत राव चौह्वाण, जो कि अब केन्द्र में है।

उस समय श्रीपाद अमृत डांगे जेल में थे। वे बीमार हुए तो उन्होने मुख्यमंत्री से इच्छा जाहिर की कि यह विष्णुपंत को दिखाना चाहते हैं। मुख्यमंत्री ने जेल अधिक्षक को आदेश दिया कि वह विष्णुपंत चितले को श्रीपाद अमृत डांगे से मिलने दें। तब विष्णु जेल में कामरेड डांगे का इलाज करने गये थे, साथ में वे और नखाते जी भी मौजूद थे, यह हमारे सामने की घटना है।

श्री हरिभाऊ जी अपने मित्र के संस्मरण सुनाते समय, लग रहा था कि वे अपने पलो को जी रहे हैं। प्रसंग- प्रसंग पर उनकी आंखो में उभरती चमक, उनके चेहरे में खिलते भाव, उनके स्वर का कम्पन सी कहानी कह रहा था।

मैने पछा, महाशय, विष्णुपंत जी अपना गुरु किसको मानते थे। हरिभाउ जी ने कहा- मैने भी विष्णु से पूछा था, तुम्हारा गुरु कौन है। तुमको दीक्षा किससे मिली है। उसकी आदत थी कि वह बहुत संक्षिप्त सी बात कहता था। सवालो के जवाब भी बहुत ही संक्षेप में और प्राय, संकेत में देता था, जिसे कभी कभी हम ठीक से समझ ही नही पाते थे। उसकी कही बाते तो हमें आज समझ में आती है। गुरु और दीक्षा के प्रश्न पर भी उसने बस एक छोटा सा उत्तर दिया जो मुझे आज भी याद है। उसने कहा था, परंपरागत नही यानी उसके कहने का आशय था कि न उसका कोई पारंपरिक गुरु है, न उसकी पारंपरिक रुप से दीक्षा हुई है, फिर गैर परम्परागत रुप से जो कुछ भी हुआ हो, उसका भेद उसने नही खोला। हां, एक बात मैने जरुर लक्ष्य की कि वह ज्ञानेश्वर को माउली नही कहता था, बल्कि कहता था, आपला महाराज। माउली के लिए इतना अनौपचारिक सम्बोधन सिर्फ विष्णु ही प्रयोग करता था।

उन्नीस सौ सत्तावन में वह महाराष्ट्र की एसेम्बली के लिए चुने गये थे, करबापेठ, पूणे से । एसेम्बली में एक सदस्य ने महाराष्ट्र में संतो की समाधियो पर टिप्पणी की, कि यह समाधियां अनावश्यक जगह घेरे हुए हैं। उस टिप्पणी के जवाह मे विष्णुपंत ने एक एतिहासिक भाषण दिया था, जिसमे समाधियों के पूरे आध्यात्मिक विज्ञान पर प्रकाश डाला था। एक कम्यूनिस्ट का संतो की समाधि के लिए इतना सशक्त पक्ष लेना अपने आप मे एक मिसाल थी।

मैने पूछा, जब कोई उनका परम्परागत गुरु नहीं था, तो कोई उनका परम्परागत शिष्य भी नहीं होगा। हरिभाऊ जी ने कहा- आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। उनका परम्परागत शिष्य कोई नहीं था मगर वे आध्यात्मिक मार्गदर्शन कई लोगो का करते थे। अगर आपको परम्परागत भाषा में ही समझना है तो श्रीमती जोग को आप उनका वास्तविक शिष्य कह सकते हैं। यह बात भी एक सबल संदर्भ से कह रहा हूं कि एक बार श्रीमती जोग मां आनंदमयी के दर्शन करने गयीं थी। यह विष्णुपंत के शांत होने की बात है। तब मां ने उनसे कहा था, आपके गुरु महान थे। यह अभी भी आपको मदद करते हैं, आप वही करती रहिए जो उन्होने बताया था।

हरिभाऊ जी आगे बताने लगे पूणे में कई लोग है जिन्हे विष्णुपंत की मृत्यु के बाद भी उन्हे दर्शन होते हैं। डाँ अशोक मराठे ने विष्णुपंथ को उसकी मृत्यु के बाद छ बार सशरीर देखा है। मैंने पूछा, आपको भी ऐसा अनुभव है क्या? मेरे सवाल पर वे पल भर को चुप रहे, फिर बोले ‘अपना तो कोई अनुभव नहीं बोलुंगा, लेकिन आपको एक घटना सुनाता हू।

यह 1987 की बात है। एक महिला पता पूछते-पूछते मेरे घर आयी। मैने दरवाजा खोला तो उसके हाथ में एक कागज़ था, उस पर मेरा नाम लिखा था, घर तक पहुंचने का नक्शा बना था। उसने कहा में हरिभाऊ कुलकर्णी से मिलना चाहती हूं। मैने कहा आपके सामने खड़ा हूं, आपको किसने भेजा है ? उसने एक छोटी सी पोटली मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, यह विष्णुपंथ चितले ने भेजा है, उन्होने ही आपका पता लिखवाया है और पहुंचने का नक्शा समझाया। विष्णुपंत का नाम सुनते ही में अवाक रह गया, फिर भी संयत होकर पूछा, ‘वह आपको कहां मिले थे ? ‘उसने बताया कि वह शिर्डी गयी थी, वहीं उसे वह मिले थे। फिर उसने पूरी घटना बतायी।

मैं दर्शन पंक्ति में खड़ी थी। दूर बैठे एक आदमी ने मेरा नाम लेकर मुझे आवाज़ देकर बुलाया। में पास गई तो पहले तो मुझसे मेरी समस्या के बारे में पूछा, उपाय बताया, फिर ये सामान देकर मुझसे कागज़ पर आपका नाम पता लिखवाया, आपके नाम पत्र लिखवाया, घर तक पहुंचने का नक्शा समझाया। इस पोटली में एक उत्तरीय (अंगोछा) है, एक नारियल, पण्डरपुर की तुलसी की एक माला और रूद्राक्ष के तीन दाने हैं। इसमें एक दाना आपके बड़े मित्र के लिए है और एक आपसे छोटे मित्र के लिए, शेष एक स्वंय आपके लिये है।

ये विवरण सुनाते-सुनाते मेरे चेहरे पर उभरते भावों को उस महिला ने पढ़ लिया था और फिर पूछने लगी थी, क्या विष्णुपंत जीवित नहीं हैं? तब मैने उस महिला से कहा, आपने उस महापुरुष की दिव्यकाया के दर्शन किये हैं। वह 1921 में शांत हो चुके हैं। लेकिन अब अप यह बात किसी और से बताईयेगा नहीं। फिर हरिभाऊ जी ने वह पत्र निकालकर दिखाया जिसे अलमारी में उन्होने संजोकर रखा हुआ है। उसकी कुछ पंक्तियाँ पढ़कर सुनायी जो कि मराठी में थीं, उसका हिन्दी अनुवाद भी सुनाया इस निर्देश के साथ कि इसे आप लिखियेगा नहीं, वह उनके लिए कुछ अध्यात्मिक निर्देश थे।

मैंने पूछा, बाकि के दो रूद्राक्ष किसके लिए थे ? एक तो आपके लिए था। उन्होने कहा हाँ, एक था वरिष्ठ मित्र के लिए, यानी नखाते के लिए, वह मुझसे वरिष्ठ हैं और एक था कनिष्ठ मित्र के लिए यानी अशोक मराठे के लिए। हम तीनों ने ही यह निर्णय लिया था कि इस घटना का और उस महिला का प्रकाश नहीं करना चाहिए, अन्यथा अनावश्यक चर्चाएं होंगी। वह महिला यहीम पुणे में रहती है। विष्णुपंत एक बात और कहा करते थे- अनाधिकारी से अनावश्यक चर्चा नहीं। मैने पूछा कोई खास निर्देश जो विष्णुपंत जी ने आपको दिये हों? वह कहने लगे उन्होने मुझसे एक बात कही थी कि किसी को आहत नहीं करना, बस यही तुम्हारी साधना है, और दूसरी बात जो उन्होने स्वंय के लिए कहा थी, वह आज मुझे थोड़ी थोड़ी समझ आती है, वह कहते थे ‘में एक क्षण में शिखर को छू सकता हूँ’ मुझे अनुभव होता है कि उन्हे शिखर छूने की ज़रूरत ही नहीं थी बल्कि वह शिखर पर ही रहते थे। हर समय चेतना के शिखर पर। तीसरी एक बात वह कहते थे, कम्युनिज्म मेरे लिए एक अच्छा पर्दा साबित हुआ है, जिसमें में खुद को छुपा कर रख सकता हूँ।

मैने हरिभाऊ से पूछा, आप विष्णुपंत जी को किस रूप में लेते हैं एक मित्र या गुरू? उन्होने मेरे सवाल के जबाव में बिल्कुल सी प्रतिक्रिया सी करते हुए कहा कि न मित्र न गुरू। उनसे मेरा रिश्ता एक चिकित्सक और रोगी का था, इसी रूप में हम एक दूसरे के करीब भी आए और आज भी में उनको अपने लिए मात्र एक चिकित्सक मानता हूँ और स्वंय को उनका रोगी। में मन ही मन सोच कर मुस्करा रहा था कि यहाँ भी परंपरागत कुछ नहीं है और है सब कुछ। मैने फिर पूछा, आप विष्णुपंत जी के पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ बताईये।

वे बताने लगे कि विष्णुपंत का जन्म महाराष्ट्र के ही सतारा ज़िला के गांव में हुआ था। उनके पिता जी कोल्हापुर राज्य पुलिस में थे, उस समय कोल्हापुर एक स्टेट था, उनके पिता का स्थानांतरण सिरोल हो गया, वहीं नरसोबा बाड़ी में टेम्बे स्वामी रहते थे जिनके दर्शन करने विष्णुपंत की मां बच्चे को साथ लेकर अक्सर जाती रहती थी।उनकी एक बड़ी बहन भी थी जिसका नाम था मोरक अक्का। विष्णुपंत ने एक वर्ष एक स्कूल में अध्यापन का भी व्यावसाय किया। पी.एल. देश पांडे उनकी इस अवधि के छात्र रहें हैं। 1942 वह कम्युनिस्ट पार्टी के एक भूमिगत कार्यकर्ता थे। आगे वह खुल कर सक्रिय रूप में सामने आ गए। कस्बापेड (पूणे) से वह असेम्बली के लिए भी चुने गए। उन्होने विवाह नहीं किया था।

मैंने धन्यावाद सहित हरिभाऊ जी से विदा ली। फिर एक दिन मैने काका से पूछा, एक ऐसा व्यक्ति जो जीवन भर कम्युनिज्म के पर्दे में रहा हो, उसकी आध्यात्मिक प्रभा को आप कैसे देख पाए? काका ने कहा, विष्णुपंत से मेरा पहला परिचय ज्ञानगंज में हुआ। उन्हे वहां देखते ही मेरे मन में तरंग आयी कि यह महाराष्ट्र केकोई दिव्य पुरूष हैं। फिर एक दिन में डॉ. भिड़े के घर पर था। उनके साथ ज्ञानेश्वरी पर कुछ चर्चाएं चल रही थी। ज्ञानेश्वरी की किताब में उनकी एक फोटो रखा था। फोटो देखते ही में पहचान गया कि इन्हे मैंने ज्ञानगंज में देखा है। मैंने डॉ. साहब से पूछा, यह फोटो किसका है? डॉ. साहब ने बताया कि यह महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट विष्णुपंत चितले का फोटो है। उस दिन मझे पहली बार विष्णुपंत चितले का नाम मालूम हुआ। मैने डॉ. साहब से कहा, लेकिन यह सिर्फ कम्युनिष्ट के अलावा भी कुछ थे। तब डॉ. साहब ने बताया कि उन्होने यही चित्र नखाते महाराज के घर पर भी लगा देखा है, उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है। उनके साथ हम नखाते जी के घर गये। वहां मुझे विष्णुपंत की सिर्फ तस्वीर ही नहीं बल्कि साकार उपस्थिति का अनुभव हुआ। नखाते जी विष्णुपंत चितले के आध्यात्मिक पहलु का साक्ष्य देने वाले पहले व्यक्ति थे। तब से डॉ. भिंडे ने उन पर खोजबीन शुरू की जो अब आप संकलित कर सके हैं। मैं सोच रहा हूँ तथा इस सारे कार्य के पीछे भी विष्णुपंत चितले का अदृश्य इच्छा कार्य कर रही है।

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